कहो दोस्त ,
जब मुझे चबाया ,
पागुर कहाँ किया ?
जब चुगली खायी ,
कांपा नहीं जिया ?
अहो दोस्त ,
मैं तो पानी था |
यूँ ही पी जाते
पैने दांत दिखा कर
तुमने अच्छा नहीं किया |
दबी सांस में साँसे खीची ,
कैसे सांस लिया ?
बंधन था कच्चे धागे सा ,
फांस गले क्यों लिया
मेरा तो जीवन था छुद्र
देने स्नेह तुम्हे |
तुमने छुद्र स्नेह भी , क्यों ?
कर, लेने नहीं दिया !
Thursday, October 28, 2010
Tuesday, October 26, 2010
दिल का मेरा ये हाल है
बिन बिका लौटा हुआ सा- माल है . बाज़ार में तेरे दिल का मेरा ये हाल है|
बेच आती दाम ऊंचे |
अगर होती यह बिकाऊ..
आत्मा तो है हमारी .
सबल है निकल नहीं पाऊ
साख गिर गयी .
किस तरह अब स्नेह की
बाज़ार में ऊँची लगी है ,
सिर्फ बोली देह की |
बेच आती दाम ऊंचे |
अगर होती यह बिकाऊ..
आत्मा तो है हमारी .
सबल है निकल नहीं पाऊ
साख गिर गयी .
किस तरह अब स्नेह की
बाज़ार में ऊँची लगी है ,
सिर्फ बोली देह की |
आसमा से
उसने ठान ली है आसमा से चाँद लेने की ,
मुझे कंधे लगा दो ,
ज़रा उपर उठा दो |
हाथ मेरे चाँद आए ना आए ,
दर्द कन्धों की गवाही तो करेगा |
मुझे कंधे लगा दो ,
ज़रा उपर उठा दो |
हाथ मेरे चाँद आए ना आए ,
दर्द कन्धों की गवाही तो करेगा |
Sunday, October 24, 2010
आत्म्च्युत पुरुष
जहा मिले मौका , मुंह मारे |
गिद्ध के बड़े चोंच भी हारे
कैसे पाया स्वाद मांस में ?
आत्म्च्युत पुरुष बता रे !
कैसे तूने घात लगाया ?
जिस हड्डी में हाथ लगाया ,
उस नस में फैले खून का -
तू विस्तार बता रे !
माँ का दूध , पिता कि शान
पचा ना पाया ,हूँ हैरान
तेरे धर्म का कौन बटखरा
बोलो बात कहा रे ?
तू दो पद का स्वामी
चतुश पाद का ज्ञानी ,कामी !
ज्ञान त्वचा का लिया कहा से ?
बोल नहीं पाते हैं स्वान
पर तू आज बता रे
आँख में आँख डाल कर देख
मिटा यह श्वान कर्म कि रेख
धरती माँ के उड़ पर
क्यों लिखता पापाचरण अभिलेख ?
गिद्ध के बड़े चोंच भी हारे
कैसे पाया स्वाद मांस में ?
आत्म्च्युत पुरुष बता रे !
कैसे तूने घात लगाया ?
जिस हड्डी में हाथ लगाया ,
उस नस में फैले खून का -
तू विस्तार बता रे !
माँ का दूध , पिता कि शान
पचा ना पाया ,हूँ हैरान
तेरे धर्म का कौन बटखरा
बोलो बात कहा रे ?
तू दो पद का स्वामी
चतुश पाद का ज्ञानी ,कामी !
ज्ञान त्वचा का लिया कहा से ?
बोल नहीं पाते हैं स्वान
पर तू आज बता रे
आँख में आँख डाल कर देख
मिटा यह श्वान कर्म कि रेख
धरती माँ के उड़ पर
क्यों लिखता पापाचरण अभिलेख ?
मेरा ह्रदय
एक जगह है बाकि ,
जहा व्यभिचार तेरा ,
कर कठिन श्रम भी
नहीं करता बसेरा |
तुम निरंकुश , आततायी
उस जगह से डरो ,
एक अंग रहने दो मेरा ,
मेरे सारे अंग वरो |
इस ह्रदय कि कोख में ,
स्नेह कि नदिया बहीं हैं ,
इस ह्रदय कि कोख ने
स्नेह का सूखा सहा है |
यह ह्रदय है ,
जो तड़प कर
भावना के भूख में -
स्वं मरता है
जीवन कि अकथ कथा को ,
बिना व्यथा के सहता है
यही ह्रदय है जो मेरे संग ,
बिना दुःख हास्य सहे रहता है
इसको क्षमा करो ,
प्रिय तुम मेरा ह्रदय ना लो |
जहा व्यभिचार तेरा ,
कर कठिन श्रम भी
नहीं करता बसेरा |
तुम निरंकुश , आततायी
उस जगह से डरो ,
एक अंग रहने दो मेरा ,
मेरे सारे अंग वरो |
इस ह्रदय कि कोख में ,
स्नेह कि नदिया बहीं हैं ,
इस ह्रदय कि कोख ने
स्नेह का सूखा सहा है |
यह ह्रदय है ,
जो तड़प कर
भावना के भूख में -
स्वं मरता है
जीवन कि अकथ कथा को ,
बिना व्यथा के सहता है
यही ह्रदय है जो मेरे संग ,
बिना दुःख हास्य सहे रहता है
इसको क्षमा करो ,
प्रिय तुम मेरा ह्रदय ना लो |
उसड़ संगति
अभिशप्त जन्म कि क्या भाषा ,
अभिशप्त जन्म का कैसा बोल ?
जहा कही भी मैं पग रखूं ,
वह कि धरती जाती डोल |
कैसे बोलूं कष्ट ह्रदय का ?
कैसे दूँ मन गांठे खोल ?
बदल रहा है मौसम मन का ,
स्नेह कि हवा दे रही दस्तक
अंकुर देता बीज ह्रदय में ,
हुई भावना नतमस्तक |
उसड़ संगती के संयोग ने ,
जीवन वज्र किया
छुवन नहीं महसूस कर रहा ,
किसने स्नेह लिया !
अभिशप्त जन्म का कैसा बोल ?
जहा कही भी मैं पग रखूं ,
वह कि धरती जाती डोल |
कैसे बोलूं कष्ट ह्रदय का ?
कैसे दूँ मन गांठे खोल ?
बदल रहा है मौसम मन का ,
स्नेह कि हवा दे रही दस्तक
अंकुर देता बीज ह्रदय में ,
हुई भावना नतमस्तक |
उसड़ संगती के संयोग ने ,
जीवन वज्र किया
छुवन नहीं महसूस कर रहा ,
किसने स्नेह लिया !
छीटे मनोरथ के
मैं सफ़ेद ,है मुझे खेद |
हूँ क्लांत , मलिन, सुस्त,नीरस |
तू खुश मिजाज ,बहुरंगी
रंगों से चूता रस
कुछ रस के छीटे पड़े मनोरथ पर मेरे
मैं बेकार हुई ,
तू ठहरा रंगीन ,
मैं थब्बेदार रही |
हूँ क्लांत , मलिन, सुस्त,नीरस |
तू खुश मिजाज ,बहुरंगी
रंगों से चूता रस
कुछ रस के छीटे पड़े मनोरथ पर मेरे
मैं बेकार हुई ,
तू ठहरा रंगीन ,
मैं थब्बेदार रही |
Friday, October 22, 2010
पदचाप की उत्प्रेरणा
देख कर सबकी ख़ुशी ,
अपने गम हम भूल जाते हैं
सड़क हैं ,
पदचाप की उत्प्रेरणा है
धूल खाते हैं
तुम्हें मेरी जमीं का वास्ता है |
कीचड़ से मत घबराना ,
एक बार आकार देख जाना
किस ख़ूबसूरती से बना रास्ता है ,
अपने ह्रदय की संकीर्णताओ से
खुद को जरा ऊपर उठाना ,
मत जल्द बाज़ी में कोई उपनाम दे जाना
संभल कर अपनी अपनी राह लेना
कि -
यहाँ चौरास्ता है ,
फर्क पड़ता नहीं नाम या उपनाम से
बस पथिक से वास्ता है ,
पथिक के स्पर्श से
मगन हो जाते हैं
सड़क हैं ,
पदचाप की उत्प्रेरणा हैं
धूल खाते हैं |
अपने गम हम भूल जाते हैं
सड़क हैं ,
पदचाप की उत्प्रेरणा है
धूल खाते हैं
तुम्हें मेरी जमीं का वास्ता है |
कीचड़ से मत घबराना ,
एक बार आकार देख जाना
किस ख़ूबसूरती से बना रास्ता है ,
अपने ह्रदय की संकीर्णताओ से
खुद को जरा ऊपर उठाना ,
मत जल्द बाज़ी में कोई उपनाम दे जाना
संभल कर अपनी अपनी राह लेना
कि -
यहाँ चौरास्ता है ,
फर्क पड़ता नहीं नाम या उपनाम से
बस पथिक से वास्ता है ,
पथिक के स्पर्श से
मगन हो जाते हैं
सड़क हैं ,
पदचाप की उत्प्रेरणा हैं
धूल खाते हैं |
वास्ता
अपनी ख़ुशी सिर्फ कैसे संभालू ,
ठहरी है मंजिल वहीँ पर हमारी |
जहाँ हर किसी का चौरास्ता है ,
हर एक गम से मेरा वास्ता है |
ठहरी है मंजिल वहीँ पर हमारी |
जहाँ हर किसी का चौरास्ता है ,
हर एक गम से मेरा वास्ता है |
जिन्दगी शहर की
जिन्दगी शहर की ,
हर पहर कहड़ की
चाखिये तो अमृत
और असर जहर सी |
समझते नहीं जो -
हैं निर्दय
शहर तो बस पेट है
है गाँव हिरदय |
हर पहर कहड़ की
चाखिये तो अमृत
और असर जहर सी |
समझते नहीं जो -
हैं निर्दय
शहर तो बस पेट है
है गाँव हिरदय |
बधिर भावना
भीड़ बहुत है भावुको की ,
जरा अलग अलग ठहरो
मेरी ऊँची आवाज़ के नीचे ,
तुमलोगों के कोमल भाव
कहीं छिटक नहीं जाय ,
बारी बारी से आकार
अपने अपने स्वार्थ की बात सुनो बहारों |
जरा अलग अलग ठहरो
मेरी ऊँची आवाज़ के नीचे ,
तुमलोगों के कोमल भाव
कहीं छिटक नहीं जाय ,
बारी बारी से आकार
अपने अपने स्वार्थ की बात सुनो बहारों |
उत्कंठा
किस उत्कंठा से तुमने मेरा कलेजा चीड़ डाला
नजर अंदाज़ कर दर्द को
बेदर्दी से कहा - " क्या कमाल है मेरी तरह इसका कलेजा लाल है "
नजर अंदाज़ कर दर्द को
बेदर्दी से कहा - " क्या कमाल है मेरी तरह इसका कलेजा लाल है "
अथक प्रयास
छमा करो तुम्हे छेड़ा ,
मेरा उद्देश्य युद्ध नहीं
मैं निरुद्द्येश दौड़ती हू |
युद्ध प्रेमियों के पीछे
उसे पकड़ कर पटकना ,
मेरा उद्देश्य नहीं
मैं निरुद्देश्य दौड़ती हू |
और दौड़ते दौड़ते थक कर
सर पटक लेती हू किसी मंदिर के चबूतरे पड़ ,
यह क्रिया अनवरत करती हू अथक
निरंतर अथक प्रयास के बाद
थक कर -
पूछती हू-
इश्वर और कब तक ?
मिलता है प्रश्न का उत्तर ,
माथे की नसों की फरफराहट दे रही है मुझे
पृथ्वी पर शांति मय जीवन चक्र की आहट ,
मन कहता है दौड़ते रहो बस दौड़ते रहो
सांस जब थोड़ी बचेगी इश्वर स्वं कहेंगे सब कुछ ,
अभी कुछ मत कहो
थोडा सहो और दौड़ते रहो |
मेरा उद्देश्य युद्ध नहीं
मैं निरुद्द्येश दौड़ती हू |
युद्ध प्रेमियों के पीछे
उसे पकड़ कर पटकना ,
मेरा उद्देश्य नहीं
मैं निरुद्देश्य दौड़ती हू |
और दौड़ते दौड़ते थक कर
सर पटक लेती हू किसी मंदिर के चबूतरे पड़ ,
यह क्रिया अनवरत करती हू अथक
निरंतर अथक प्रयास के बाद
थक कर -
पूछती हू-
इश्वर और कब तक ?
मिलता है प्रश्न का उत्तर ,
माथे की नसों की फरफराहट दे रही है मुझे
पृथ्वी पर शांति मय जीवन चक्र की आहट ,
मन कहता है दौड़ते रहो बस दौड़ते रहो
सांस जब थोड़ी बचेगी इश्वर स्वं कहेंगे सब कुछ ,
अभी कुछ मत कहो
थोडा सहो और दौड़ते रहो |
दिल की जमीं
हैं नहीं अनुकूल मौसम मन का ,
ठूठ पसरे हुए कुछ पेड़ सी है जिन्दगी |
टीले नुमा पत्थरों का ढेर सा ह्रदय है
है प्यास भावना की , पानी नहीं है ,
पर ,मत डरो सद्भावना की सुखाड़ से ,
सत्य के कुछ आधुनिक हथियार रख
बढते चलो आगे , पसीना पोछ कर ,
"ड्रिल " करो धरती
झूठ के सब ठूठ पौधों को उखारो
तोड़ दो पत्थर पानी बहा दो
यह शपथ लो माथ में
यह नहीं दुर्भाग्य स्थाई हमारा ,
है असर ऋतू का भी की
सुहाना मंजर नहीं है ,
खोद कर देखो जमी दिल की
हुआ अभी बंजर नहीं है |
ठूठ पसरे हुए कुछ पेड़ सी है जिन्दगी |
टीले नुमा पत्थरों का ढेर सा ह्रदय है
है प्यास भावना की , पानी नहीं है ,
पर ,मत डरो सद्भावना की सुखाड़ से ,
सत्य के कुछ आधुनिक हथियार रख
बढते चलो आगे , पसीना पोछ कर ,
"ड्रिल " करो धरती
झूठ के सब ठूठ पौधों को उखारो
तोड़ दो पत्थर पानी बहा दो
यह शपथ लो माथ में
यह नहीं दुर्भाग्य स्थाई हमारा ,
है असर ऋतू का भी की
सुहाना मंजर नहीं है ,
खोद कर देखो जमी दिल की
हुआ अभी बंजर नहीं है |
उपेक्षा
बांधने वज्र गाँठ
किसी के साथ
पैदा हुई थी तुम -
विकेन्द्रित मनुष्यता की
एकता के भावना का गीत गाने |
कौन है वह जिसने
तुम्हारे मन के गहराइयों में
दो बूँद कमी ,पहचान बैठा अनजाने ?
और तुम भी घबरा कर
थोड़ी उपेक्षा मात्र से
सृष्टि में आद्यांत पसरे
अपेक्षाओ कि कड़ी तोड़ कर ,
कितने ही भावनाओ के बन्धनों को छोड़ कर
आस्था के लयात्मक गीत का लय मोड़ कर
चेहरे पद क्रांति के भाव लेकर
बैठी बिगुल बाजाने
मुक्ति का गीत लगी गाने ?
किसी के साथ
पैदा हुई थी तुम -
विकेन्द्रित मनुष्यता की
एकता के भावना का गीत गाने |
कौन है वह जिसने
तुम्हारे मन के गहराइयों में
दो बूँद कमी ,पहचान बैठा अनजाने ?
और तुम भी घबरा कर
थोड़ी उपेक्षा मात्र से
सृष्टि में आद्यांत पसरे
अपेक्षाओ कि कड़ी तोड़ कर ,
कितने ही भावनाओ के बन्धनों को छोड़ कर
आस्था के लयात्मक गीत का लय मोड़ कर
चेहरे पद क्रांति के भाव लेकर
बैठी बिगुल बाजाने
मुक्ति का गीत लगी गाने ?
निष्फल
लिखे पन्ने कि लिखावट सी तुम्हारी जिन्दगी ,
अपने ही अर्थ को मिटाती सी जिन्दगी
मिटे हुए अर्थ कि अनर्थ सी जिन्दगी ,
मूक है , बबूल सी
कांटे चुभाती जिन्दगी |
कूटते रह गए
रहे निष्फल ,
होती रही शर्मिंदगी
एक लोहे के चने सी जिन्दगी |
अपने ही अर्थ को मिटाती सी जिन्दगी
मिटे हुए अर्थ कि अनर्थ सी जिन्दगी ,
मूक है , बबूल सी
कांटे चुभाती जिन्दगी |
कूटते रह गए
रहे निष्फल ,
होती रही शर्मिंदगी
एक लोहे के चने सी जिन्दगी |
अग्निदीक्षा
हम हँसे तो -
हास्य को आंका गया सिरे से
हम जो रोये तो-
करुण रस पर समीक्षा हो गयी
वीरता विभात्सा का नृत्य नंगा देख कर ,
हवन मेरी आज तक की
सारी दीक्षा हो गयी |
हम ना हो पाएंगे उतने रौद्र
जितने तुम हुए ,
उस पराये पन कि जय ,
जिसमे परीक्षा हो गयी |
कर लिया सारा इकठ्ठा
तुमने जो करकट दिया
वह भला कब तक ठहरता
आत्मा कि तेज में ?
जल पड़ी बन लौ
कि जीवन अग्निदीक्षा हो गयी |
हास्य को आंका गया सिरे से
हम जो रोये तो-
करुण रस पर समीक्षा हो गयी
वीरता विभात्सा का नृत्य नंगा देख कर ,
हवन मेरी आज तक की
सारी दीक्षा हो गयी |
हम ना हो पाएंगे उतने रौद्र
जितने तुम हुए ,
उस पराये पन कि जय ,
जिसमे परीक्षा हो गयी |
कर लिया सारा इकठ्ठा
तुमने जो करकट दिया
वह भला कब तक ठहरता
आत्मा कि तेज में ?
जल पड़ी बन लौ
कि जीवन अग्निदीक्षा हो गयी |
Thursday, October 21, 2010
मेरा जहाँ
माना नहीं मेरा यहाँ नामो निशा है ,
पर अभी भी -
किसी खम्बे में दिल अटका
किसी पाए में जान है ,
किसी मेहराब में है आत्मा ,
हर कदम,कदमो के निशा हैं
एई भाई !
मैं बहन तेरी
बेटी थी यहाँ कि ,
आज माँ हूँ
बताऊ कौन सा सच ?
कि मैं कहा हूँ ?
कहाँ कि हवा मेरी है ?
कहाँ आसमान मेरा है ?
कहूँ किससे ? संभाले रख
कि यह जहां मेरा है ,
ठहरना है नहीं मुझको कहीं
ना जमीं मेरी ना मकान मेरा है ,
जहाँ मैं हूँ
वहां मौसम नहीं बदलता है
बदल जाते हैं घर ,
अरमान नहीं बदलता है
कभी भूले से भी
अगर इक बार आएंगे ,
नजर भर देख लेंगे बस
दुवायें देकर जायेंगे |
पर अभी भी -
किसी खम्बे में दिल अटका
किसी पाए में जान है ,
किसी मेहराब में है आत्मा ,
हर कदम,कदमो के निशा हैं
एई भाई !
मैं बहन तेरी
बेटी थी यहाँ कि ,
आज माँ हूँ
बताऊ कौन सा सच ?
कि मैं कहा हूँ ?
कहाँ कि हवा मेरी है ?
कहाँ आसमान मेरा है ?
कहूँ किससे ? संभाले रख
कि यह जहां मेरा है ,
ठहरना है नहीं मुझको कहीं
ना जमीं मेरी ना मकान मेरा है ,
जहाँ मैं हूँ
वहां मौसम नहीं बदलता है
बदल जाते हैं घर ,
अरमान नहीं बदलता है
कभी भूले से भी
अगर इक बार आएंगे ,
नजर भर देख लेंगे बस
दुवायें देकर जायेंगे |
बटुए में अपनत्व
मेरे अपने तुम्हारा अपनत्व ,
मेरी बटुआ में समां गया है |
क्या तुम्हे उसे
तलाशने कि जरुरत नहीं ?
जिसे मैंने अपने ह्रदय की तिजोरी में
बंद कर लिया है |
मेरी बटुआ में समां गया है |
क्या तुम्हे उसे
तलाशने कि जरुरत नहीं ?
जिसे मैंने अपने ह्रदय की तिजोरी में
बंद कर लिया है |
दो बूँद आंसू
करो दंगे करो फसाद भी
भावना के दो शब्द रहे याद-
ना रहे याद भी ,
मगर जियो तो जियो ,
इतनी दुआ संभाले
मरो तो कोई दो बूँद
आंसू तो निकाले |
भावना के दो शब्द रहे याद-
ना रहे याद भी ,
मगर जियो तो जियो ,
इतनी दुआ संभाले
मरो तो कोई दो बूँद
आंसू तो निकाले |
मन का सूर्य
मेरे भीतर एक सूर्य है ,
तो अँधेरा होगा ही |
मुझे पता था उदित हुआ था ,
मुझे पता है डूबेगा ही |
तो अँधेरा होगा ही |
मुझे पता था उदित हुआ था ,
मुझे पता है डूबेगा ही |
मात
मात दे रहे हो तुम
मुझे ऐसे केस में,
जिस खेमे में बैठ गयी हूँ
गलती से मैं ,
कटी हुई हैं टंगे मेरी
पदक ले रहे हो तुम ,
हराकर मुझे इस रेस में |
मुझे ऐसे केस में,
जिस खेमे में बैठ गयी हूँ
गलती से मैं ,
कटी हुई हैं टंगे मेरी
पदक ले रहे हो तुम ,
हराकर मुझे इस रेस में |
प्रकाशित आत्मा
हे अस्ताचल के सूर्य ,
उदित होकर कल आना |
अज दुबक कर रह लुंगी मै ,
बाकि रखना शक्ति किरण में
फिर तू मुझे उठाना |
तेज तुम्हारा ग्रहण कर लिया ,
मिला तुम्हारा तत्व सारा |
शक्ति ली तुमसे ,
प्रकाशित आत्मा कि |
छुप जाऊ नहीं कही ,
अमानवीय छितिज आकाश में ,
जलती रहू निरंतर
सबके स्वार्थ धरा पर ,
रख कर चिर कालिक धैर्य
सफल हो सबके कार्य अनंत ,
नहीं हो कभी सृष्टि का अंत |
उदित होकर कल आना |
अज दुबक कर रह लुंगी मै ,
बाकि रखना शक्ति किरण में
फिर तू मुझे उठाना |
तेज तुम्हारा ग्रहण कर लिया ,
मिला तुम्हारा तत्व सारा |
शक्ति ली तुमसे ,
प्रकाशित आत्मा कि |
छुप जाऊ नहीं कही ,
अमानवीय छितिज आकाश में ,
जलती रहू निरंतर
सबके स्वार्थ धरा पर ,
रख कर चिर कालिक धैर्य
सफल हो सबके कार्य अनंत ,
नहीं हो कभी सृष्टि का अंत |
स्नेह
बदल रहा है मौसम मन का ,
स्नेह कि हवा दे रही दस्तक |
अंकुर देता बीज ह्रदय में ,
हुई भावना नतमस्तक |
उसड़ संगती के संयोग में ,
जीवन वज्र किया ,
छुवन नहीं महसूस कर रहा ,
किसने स्नेह लिया ?
स्नेह कि हवा दे रही दस्तक |
अंकुर देता बीज ह्रदय में ,
हुई भावना नतमस्तक |
उसड़ संगती के संयोग में ,
जीवन वज्र किया ,
छुवन नहीं महसूस कर रहा ,
किसने स्नेह लिया ?
मौसम रांची का
कहीं पहाड़ी सड़क बन गयी,
खड़ा पहाड़ अनमना |
जगह जगह पर झुकी झोपड़ी ,
पग पग बहु मंजिल बना |
हर एक मोड़ पर झुण्ड बांस का,
आँगन आँगन वृद्ध तना |
वृक्ष हीनता का ना रंज ,
घेर खड़े हैं हमें करंज |
यहाँ धूप में नहीं है गर्मी ,
बदल में ठहरे ना नमी |
मन क़ी धरती फटती जाती ,
भावुकता क़ी देख कमी |
रुके धूप तो हवा दौड़ती ,
छाप खुशनुमा कभी छोडती |
कभी रेडती लहर ठण्ड क़ी,
पुनः दौड़ फिर सूर्य हेरती |
हेर हेर सूरज है लाती ,
गर्म दोपहर हमें दिखाती |
थोड़ी गर्मी लगी इधर कि ,
बिन baadal पानी बरसाती |
मौसम का देख नजारा ,
बिजली ने थप्पड़ मारा |
ऐसे जोर से कडकी ,
डर से पसली फडकी |
खिड़की का सीसा दड़का ,
मन मेरा यहाँ से हड़का |
बात कहू मैं साँची ,
यही शहर है रांची...
यही शहर है रांची-
यहाँ हर शख्स रंगीला ,
जब सुखा हर जगह पड़ा हो
यहाँ हो मौसम गीला ,
सूखे मौसम में भी देह ने
लहर शीत का झेला ,
यहाँ सुख में खाते भाई पार्टी दुःख में छोड़ अकेला |
क्या कहे यहाँ हर पल मौसम गीला -
सूखा है |
हर एक भरे पेट पर,
हर एक भूखा है |
खड़ा पहाड़ अनमना |
जगह जगह पर झुकी झोपड़ी ,
पग पग बहु मंजिल बना |
हर एक मोड़ पर झुण्ड बांस का,
आँगन आँगन वृद्ध तना |
वृक्ष हीनता का ना रंज ,
घेर खड़े हैं हमें करंज |
यहाँ धूप में नहीं है गर्मी ,
बदल में ठहरे ना नमी |
मन क़ी धरती फटती जाती ,
भावुकता क़ी देख कमी |
रुके धूप तो हवा दौड़ती ,
छाप खुशनुमा कभी छोडती |
कभी रेडती लहर ठण्ड क़ी,
पुनः दौड़ फिर सूर्य हेरती |
हेर हेर सूरज है लाती ,
गर्म दोपहर हमें दिखाती |
थोड़ी गर्मी लगी इधर कि ,
बिन baadal पानी बरसाती |
मौसम का देख नजारा ,
बिजली ने थप्पड़ मारा |
ऐसे जोर से कडकी ,
डर से पसली फडकी |
खिड़की का सीसा दड़का ,
मन मेरा यहाँ से हड़का |
बात कहू मैं साँची ,
यही शहर है रांची...
यही शहर है रांची-
यहाँ हर शख्स रंगीला ,
जब सुखा हर जगह पड़ा हो
यहाँ हो मौसम गीला ,
सूखे मौसम में भी देह ने
लहर शीत का झेला ,
यहाँ सुख में खाते भाई पार्टी दुःख में छोड़ अकेला |
क्या कहे यहाँ हर पल मौसम गीला -
सूखा है |
हर एक भरे पेट पर,
हर एक भूखा है |
धृष्टता
हमारे हक़ में क्या है ,
अब हमें यह सोचना होगा |
पराश्रित ज़िन्दगी के दर्द को अब रोकना होगा |
घिर चुके बन्दूक से , गोली बरसने क़ी ना बारी हो;
निकाले आत्मा का ओज वह-
जो दुश्मनों के दाव से अब तक ना हारी हो |
कूटनीतिक फंद-
गर्दन को ना कस दे ,
फरफराए हम
कही दुनिया ना हँस दे ,
दर्द मेरा, छटपटाहट और क़ी हो
इस साजिश पर ,
दुनियाँ का विश्वास ना बढ़ने पाए
चीख कर फट रही जमी
रोता मन का आसमान है ,
आत्मा की गवाही का नहीं कोइ निशान है
दिखा रहा जो दर्द दुश्मन, घाव मेरी है |
सह रहें हैं धृष्टता, यह भी दिलेरी है !
अब हमें यह सोचना होगा |
पराश्रित ज़िन्दगी के दर्द को अब रोकना होगा |
घिर चुके बन्दूक से , गोली बरसने क़ी ना बारी हो;
निकाले आत्मा का ओज वह-
जो दुश्मनों के दाव से अब तक ना हारी हो |
कूटनीतिक फंद-
गर्दन को ना कस दे ,
फरफराए हम
कही दुनिया ना हँस दे ,
दर्द मेरा, छटपटाहट और क़ी हो
इस साजिश पर ,
दुनियाँ का विश्वास ना बढ़ने पाए
चीख कर फट रही जमी
रोता मन का आसमान है ,
आत्मा की गवाही का नहीं कोइ निशान है
दिखा रहा जो दर्द दुश्मन, घाव मेरी है |
सह रहें हैं धृष्टता, यह भी दिलेरी है !
Monday, October 18, 2010
भीर भावना क़ी
मै अकेली नहीं होती हू कभी
एक भीतर ,
अपने तीव्र ध्वनि के चरम पर
चीखते हुए-
मुझमे वास करती है
भीर में कभी कभी
सट जाते हैं कान कई
फैल जाती हैं अफवाहे
भीर में दब जाती हैं कई बार निरीह दारुण आहे
ठोकरों से टूटी हैं नाक
कभी कभी सटे हुए आपस का सीना
फरफरा उठता है
कभी भीर क़ी शिकस्त में
नेचे क़ी और लटके हुए
निष्क्रिय और लचर हो उठते हैं हाथ
भीर में हम दौड़ नही सकते
बस एक दुसरे पर पटकते हैं सर
फरफराहट में सास लेने के लिए
भीर दौड़ती नहीं कभी
बहते हुए खून वाले व्यक्ति क़ी और
भीर में हर एक दिल का दम फरफरता है
भगदर में निकल चुके दम पर
कोई तरस नहीं खाता है
क्या साथ देंगे मेरा भीर में रह कर एकाकी सोच वाले ?
साथ लू उनका-
जो-
मेरी तरह अपने ह्रदय में भीर पाले
एक भीतर ,
अपने तीव्र ध्वनि के चरम पर
चीखते हुए-
मुझमे वास करती है
भीर में कभी कभी
सट जाते हैं कान कई
फैल जाती हैं अफवाहे
भीर में दब जाती हैं कई बार निरीह दारुण आहे
ठोकरों से टूटी हैं नाक
कभी कभी सटे हुए आपस का सीना
फरफरा उठता है
कभी भीर क़ी शिकस्त में
नेचे क़ी और लटके हुए
निष्क्रिय और लचर हो उठते हैं हाथ
भीर में हम दौड़ नही सकते
बस एक दुसरे पर पटकते हैं सर
फरफराहट में सास लेने के लिए
भीर दौड़ती नहीं कभी
बहते हुए खून वाले व्यक्ति क़ी और
भीर में हर एक दिल का दम फरफरता है
भगदर में निकल चुके दम पर
कोई तरस नहीं खाता है
क्या साथ देंगे मेरा भीर में रह कर एकाकी सोच वाले ?
साथ लू उनका-
जो-
मेरी तरह अपने ह्रदय में भीर पाले
स्नेह सुगंध
सहन कर तेरे विरह का ताप
अक्षम ह्रदय का देख उत्ताप !
शब्द होठ से फूट न पता
दारुण करता ह्रदय विलाप
मन कस्तूरी मृग सा !
सुगंध के पीछे उन्मत नेह हुआ
कितना विवश पाकर पाने में
जीवन सुगंध को देह हुआ
खिली रात क़ी चान्दिनी में
तू बेला क़ी गंध
साँसों में बसा हुआ निर्मल स्नेह सुगंध
अक्षम ह्रदय का देख उत्ताप !
शब्द होठ से फूट न पता
दारुण करता ह्रदय विलाप
मन कस्तूरी मृग सा !
सुगंध के पीछे उन्मत नेह हुआ
कितना विवश पाकर पाने में
जीवन सुगंध को देह हुआ
खिली रात क़ी चान्दिनी में
तू बेला क़ी गंध
साँसों में बसा हुआ निर्मल स्नेह सुगंध
स्नेह गणित
शून्य मै और तुम अंक मेरे
हम परस्पर साथ हों
क्यों शून्यता घेरे
जब गणित की हो विधा
स्नेह के विज्ञानं में
फिर कला क़ी आस क्यों ?
जोरने में हुए हो पूर्ण अक्षम
फिर घटाने में अटल विश्वास क्यों ?
हम परस्पर साथ हों
क्यों शून्यता घेरे
जब गणित की हो विधा
स्नेह के विज्ञानं में
फिर कला क़ी आस क्यों ?
जोरने में हुए हो पूर्ण अक्षम
फिर घटाने में अटल विश्वास क्यों ?
Meri Jindgi
मैं विपत्ति के चौराहे से
घर की राह पकरती हू
घर के सामने एक गली से
शोर्ट कट में
मुक्ति के लिए
जदोजहद करते हुए
मैं रोड पर आकार
एक उच्वास लेती हू
मुक्ति के आनंद में लीन
अचानक पुराने सड़क से आखे चार होती हैं
एक बार फिर
अपनी ही जिन्दगी से अपनी हार होती है
पैरो की थकन भी
आत्मा की थकन को बल देती है
मै खड़ी सड़क नापती हू
और जिन्दगी चल देती है
घर की राह पकरती हू
घर के सामने एक गली से
शोर्ट कट में
मुक्ति के लिए
जदोजहद करते हुए
मैं रोड पर आकार
एक उच्वास लेती हू
मुक्ति के आनंद में लीन
अचानक पुराने सड़क से आखे चार होती हैं
एक बार फिर
अपनी ही जिन्दगी से अपनी हार होती है
पैरो की थकन भी
आत्मा की थकन को बल देती है
मै खड़ी सड़क नापती हू
और जिन्दगी चल देती है
Friday, October 15, 2010
Toophan
तुम्हारे मन के तूफानी बारिश में-
मैं पड़ी हुई
एक खुली किताब सी
मेरे भीतर गर्भित सार तत्त्व
क्या तुम पढ़ सकते हो बैठ कर ?
तुम्हे तूफान की लहर ले जाएगी उड़ाकर
तुम्हारी उत्सुकता और मेरे किताब के मध्य या तो तूफान रहेगा या स्वयं तुम या दिखलाने के लिए सार गर्भिता-
मुझे तुम्हारी प्रकृति से करना पड़ेगा युद्ध
और मनोनुकूल मौसम का निर्माण कर करनी पड़ेगी एक रचना
जिस प्रक्रिया में -
अपने ह्रदय के गर्भ में नए नए मैं ज्ञान पा लूं और प्रसव सी पीड़ा सहकर
नया नया मै शब्द निकलूं ||
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