Monday, October 18, 2010

स्नेह सुगंध

सहन कर तेरे विरह का ताप
अक्षम  ह्रदय का देख उत्ताप !
शब्द होठ से फूट न पता
दारुण करता ह्रदय विलाप
मन कस्तूरी मृग सा !
सुगंध के पीछे उन्मत नेह हुआ
कितना विवश पाकर पाने में
जीवन सुगंध को देह हुआ
खिली रात क़ी चान्दिनी में
तू बेला क़ी गंध
साँसों में बसा हुआ निर्मल स्नेह सुगंध

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