Thursday, October 21, 2010

धृष्टता

हमारे हक़ में क्या है ,
अब हमें यह सोचना होगा |
पराश्रित ज़िन्दगी के दर्द को अब रोकना होगा |
घिर चुके बन्दूक से , गोली बरसने क़ी ना बारी हो;
 निकाले आत्मा  का ओज वह-
जो दुश्मनों के दाव से  अब तक ना हारी हो |
कूटनीतिक फंद-
गर्दन को ना कस दे ,
फरफराए   हम
कही दुनिया ना हँस दे ,
दर्द मेरा, छटपटाहट  और क़ी हो 
इस साजिश पर ,
दुनियाँ का विश्वास ना बढ़ने पाए
चीख कर फट रही जमी
रोता मन का आसमान है ,
आत्मा की गवाही का नहीं कोइ निशान है
दिखा रहा जो दर्द दुश्मन, घाव मेरी है |
सह रहें हैं धृष्टता, यह भी दिलेरी है  !

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